16 For God so loved the world that he gave his only Son, that everyone who believes in him should not perish but have everlasting life. 17 For God did not send his Son into the world to condemn the world but to save the world through him. 18 Whoever believes in him should not be condemned; but whoever does not believe in him is condemned already, because he has not believed in the name of God's only Son.oly words of lord jesus
Wednesday, December 4, 2024
बाइबल: प्रभु की वाणी है! Bible: God's voice!
बाइबल: प्रभु की वाणी है!
ईश्वर ने बाइबिल की पुस्तकों की रचना में किस प्रकार प्रेरणा प्रदान की थी, जिसके कारण यह पुस्तक ईश्वर की वाणी कही गई है, यह एक दिव्य रहस्य है. हमारा विश्वास है कि ईश्वर के पुत्र ने इस प्रकार के देहधारण की पूर्ण रूप से ईश्वर रहते हुए भी वह पूर्ण रूप से मनुष्य बन गए. ऐसे ही यह भी कहा जा सकता है कि बाइबल की रचनाएं पूर्ण रूप से मनुष्य कृत है, फिर भी इनमें ईश्वर के शब्द अवतरित हुए हैं. अंतिम विश्लेषण में यह एक दिव्य रहस्य है. बाइबल की पुस्तके मानव द्वारा रचित है और ईश्वर धारा भी. हम समझ सकते हैं कि मानवी साहित्य रचना क्या है. किंतु ईश्वरी प्रेरणा तो अदृश्य कृपा है और यह पूर्णत: है रहस्यमय है. उसकी सहायता से पवित्र लेखकों ने अपने स्वतंत्र प्रतिभा और अपने व्यक्तिगत शैली और अशुण रखते हुए, तथा देश काल की सीमाओं में आबद्ध रखकर वही लिखा, जो ईश्वर चाहता था.
इससे पाठक सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि बाइबल मात्रा प्राचीन साहित्य के बहुमूल्य मंजूषा नहीं है, न ही इजरायली प्रजा के धार्मिक और नैतिक सिद्धांतों का विचित्र संकलन है. बाइबल कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है, जिसमें किसी लेखक ने ईश्वर के विषय में लिखा है.बाइबल प्रधानत: एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें ईश्वर मनुष्य को संबोधित करता है. पवित्र लेखक इस सच्चाई के साक्षी है, यह तुम्हारे लिए मेरे शब्द नहीं है, बल्कि इन पर तुम्हारा जीवन निर्भर है. ( विधि- विवरण 32:47). इनका विवरण दिया गया है. जिससे तुम विश्वास करो कि ईसा मसीह ही ईश्वर के पुत्र है और विश्वास करने से उनके नाम द्वारा जीवन प्राप्त करो.(योहन 20:31).
बाइबल पढ़ते समय इस बात की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए. इस पाठ में आमंत्रण का भाव निहित है. इसमें लेखक पाठकों को महत्वपूर्ण संदेश संप्रेषित करते हैं. पाठक यह आमंत्रण और अस्वीकार कर , साहित्य अथवा इतिहास के रूप में भी बाइबल पढ़ सकता है. किंतु वह आमंत्रण स्वीकार भी कर सकता है. तभी वह यथोचित पाठ प्रारंभ करता है. ऐसे पाठ में पाठक लेखक के साथ संवाद प्रारंभ करने को तत्पर होता है. लेखक अपने विश्वास का साक्ष्य देता है और वही विश्वास पाठक में उत्पन्न होता है. ऐसे संवाद में पुरुषार्थ और मानव अस्तित्व के मूलभूत प्रश्न उठते हैं. याध्पी बाइबल और उसमें प्रतिपादित विश्वास, जिसको अपने के लिए लेखक अग्रहण पूर्ण आमंत्रण देता है, इतिहास विशेष पर आधारित है, तथापि समस्त मानव इतिहास उनका लक्ष्य है. बाइबल के लेखक ऐसे संदेश के वाहक थे, जिसको पाने वाला मानव मात्र है. चाहे वह किसी देश या काल का हो. युगों से विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों की भक्ति इसी मंडलियों इस पवित्र ग्रंथ से आत्मिक पोषण पाती रहती है, उसका मनन कर वे उसे अपने जीवन में चरितार्थ करने की कोशिश करती रहती है. बाइबल का पाठ करने से मनुष्य विश्वास का जीवन बिताना सीख लेता है, तथा यही विश्वास उसे पुनः बाइबिल में पैठने की प्रेरणा देता है.
The Church has recognized all these writings because the Church considers them to be the words of God. The writings of the Bible are the original and exclusive words of God. The Church believes so. Paul made this clear while writing to Timothy: The Scriptures can give you knowledge of the salvation which comes through faith in Jesus Christ. All Scripture is God-breathed and is useful for teaching, for refuting wrong ideas, for correcting life and for giving instructions for good conduct, so that one becomes capable of doing every kind of good work. (2 Timothy 3:15-17)
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